Wednesday, December 9, 2009

महंगाई पर हाथ खड़े करती सरकार!

खाद्य पदार्थों के बेतहाशा महंगे होने के कारण देश के गरीब जो यंत्रणा इन दिनों झेल रहे हैं, ऎसी आजादी के बाद पिछले साठ साल में कभी नहीं देखी गई। किसी ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि दाल सौ रूपए किलो हो जाएगी और सब्जियों की कीमतें भी आसमान छूने लगेंगी। उस पर विडम्बना यह है कि आम आदमी का हितैषी होने का दम भरने वाले सत्तारू ढ़ संप्रग में एक भी नेता ऎसा नहीं है, जिसने घोर विपत्ति के इस दौर में गरीब के आंसू पोंछने वाली कोई बात कही हो।

इससे भी अधिक विस्मयकारी बात यह है कि जो लोग और पार्टियां विगत में महंगाई के खिलाफ आंदोलन करती रही हैं और खुद को दलितों व गरीबों का मसीहा बताती हैं, वे भी चुप हैं। जनता की याददाश्त कमजोर हो सकती है, लेकिन 1999 में कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में प्याज के दाम अचानक बेहद बढ़ जाने के कारण भाजपा को करारी हार झेलनी पड़ी थी। धड़ेबाजी के कारण बेहद कमजोर हो गई भाजपा ने दिल्ली की सड़कों पर महंगाई के खिलाफ प्रदर्शन किए जरू र, लेकिन वह प्रतीकात्मक बनकर रह गए।

पिछले सप्ताह लोकसभा में इस मुद्दे पर हुई बहस के दौरान सदन में सदस्यों की नाममात्र की उपस्थिति से साफ हो गया कि हमारे राजनेताओं को गरीब की कितनी चिंता है। शरद पवार जब उत्तर देने के लिए खड़े हुए, तो सदन में केवल 26 सदस्य उपस्थित थे। बहस की शुरूआत करने वाले भारतीय जनता पार्टी के मुरली मनोहर जोशी और समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव भी उस समय सदन में मौजूद नहीं थे।

देश की एक अरब से अधिक आबादी में से गरीब और दलित, जो असहनीय दुख-तकलीफ झेल रहे हैं, उस पर हुई चर्चा में कृषि मंत्री शरद पवार का योगदान क्या है? उन्होंने व्यंग्यात्मक लहजे में महंगाई का सारा दोष राज्य सरकारों के सिर मढ़ कर केन्द्र सरकार को सभी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया। इससे ज्यादा शर्मनाक बात कोई नहीं हो सकती। क्या महाराष्ट्र में सरकार कांग्रेस और पवार की पार्टी नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी की नहीं है? क्या आन्ध्र से राजस्थान और हरियाणा तक कई अन्य राज्यों में भी कांग्रेस सत्तारू ढ़ नहीं है?

शरद पवार का केन्द्रीय खाद्य एवं कृषि मंत्री के रू प में प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है। वे इस पद पर 2004 से हैं, लेकिन इस पूृरे कार्यकाल में उन्होंने मंत्री पद की जिम्मेदारी बहुत लापरवाह तरीके से निभाई है, क्योंकि उनके दिमाग में इससे भी महत्वपूर्ण कई चीजें हैं। उदाहरण के लिए, बेहद लुभावने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट का नाम लिया जा सकता है। इसके अलावा एनसीपी के एकछत्र नेता पवार अपनी बेटी सुप्रिया सुले को अपना उत्तराधिकारी बनाने की कोशिश में जोर-शोर से लगे हुए हैं।

चीनी और गन्ने की कीमतों के घोटाले में पवार की निंदनीय भूमिका रही है। इसी के चलते मनमोहन सिंह सरकार को हड़बड़ी में अपना कदम वापस लेना पड़ा। राज्यसभा में विपक्ष के कुछ सांसदों ने बेलगाम महंगाई के बारे में केन्द्र सरकार की निष्क्रियता सम्बन्धी पैने और प्रासंगिक प्रश्न पूछे थे। इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय है कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूर्व में कह चुके हैं कि महंगाई को काबू में रखने के लिए युद्धस्तर पर कदम उठाए जा रहे हैं।

केन्द्र सरकार के संकटमोचक की भूमिका कई बार निभा चुके प्रणव मुखर्जी भी इस बहस के दौरान आपा खो बैठे और माकपा नेता वृंदा करात को जोर-जोर से लताड़ने लगे। उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि केन्द्र सरकार महंगाई पर काबू पाने के लिए क्या कदम उठा रही है। उन्होंने न जमाखोरों और न मुनाफाखोरों के बारे में कुछ कहना मुनासिब समझा और न तथाकथित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विफल होने के बारे में कुछ कहा। हालांकि उन्होंने दावा किया कि "सरकार जो कुछ कर सकती है, वह कर रही है।" इसके बाद उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में दालों की तीस लाख टन कमी के बारे में वह कुछ नहीं कर सकते। क्या इन हालात में सरकार को समय रहते योजना बनाकर कदम नहीं उठाने चाहिए थे? क्या प्रणव बाबू या शरद पवार बताएंगे कि चीनी के दाम तीन गुने कैसे हो गए, जब तीन महीने पहले ही पवार कह रहे थे कि देश में चीनी की बहुतायत है और उसमें से कुछ का निर्यात भी किया जा सकता है?

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आज अमीर और गरीब के बीच की खाई अपूर्व है। वर्ष 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के बाद कुछ लोगों का जीवन-स्तर तो सुधरा है, लेकिन 35 करोड़ से ज्यादा लोगों को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो रही, उनके बारे में सोचने की फुर्सत लगता है सरकार में बैठे लोगों को है ही नहीं।
इसी तरह 9 प्रतिशत विकास दर भी प्रशंसनीय है, जो मंदी के इस दौर में चीन की उच्चतम विकास दर के बाद दूसरे नम्बर पर है। लेकिन मुश्किल यह है कि संप्रग सरकार मानती है कि ऊंची विकास दर से गरीब स्वाभाविक रूप से लाभान्वित होंगे, क्योंकि उसका लाभ ऊपर से नीचे तक पहुंचेगा।

गरीबी की रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों की तादाद भी कुछ घटी है, लेकिन इस बारे में सरकारी आंकड़े दोषपूर्ण हैं, जिसमें मूल्य सूचकांक से खाद्य पदार्थों को बाहर रखा गया है।

यदि एक डॉलर प्रतिदिन आय को गरीबी रेखा का पैमाना माना जाए, तो गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों की तादाद कहीं ज्यादा होगी। आज खाद्य पदार्थों की कीमतें जिस स्तर पर हैं, उनका फिलहाल नीचे आना संभव नहीं लगता, जिसकी वजह से गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को भी मुश्किलें हो रही हैं। आज तो मध्यम वर्ग के भी अनेक परिवार ऎसे हैं, जो दाल-सब्जियां खरीदने की हैसियत में नहीं रहे। उभरते भारत के लिए इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है?