Saturday, February 21, 2009

"कल्याण" हो तो कैसे 
 

लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति के मन में प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पैदा हो सकती है। फिर 70 वर्ष से राजनीति में सक्रिय आडवाणी की ये महत्वाकांक्षा गलत नहीं है। पर उन्हें आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि क्या कारण है कि नए-नए लोगों के जुडने के बजाय एक-एक करके सब पुराने बडे नेता और उनके सहयोगी उनसे कन्नी काट चुके हैं। अब उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है। 

कल्याण सिंह फिर रूठ गए। इससे पहले भैरोंसिंह शेखावत प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत कर चुके हैं। नरेन्द्र मोदी ने उद्योग जगत से खुद को भावी प्रधानमंत्री का दावेदार घोषित करवा दिया। जिन्ना वाले बयान पर आडवाणी के खिलाफ संघ, विहिप और भाजपा का नेतृत्व पहले ही काफी आग उगल चुका है। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी गाहे-बगाहे खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताते रहते हैं। फिर अपना बयान वापस भी ले लेते हैं। उमा भारती और गोविन्दाचार्य जैसे आडवाणी के खासुलखास रहे सिपहसालार कब से उनसे खफा हैं। अटल बिहारी और आडवाणी के सम्बन्धो के बारे में भी विरोधाभासी बयान आते रहते हैं। जिन दिनों गोविन्दाचार्य आडवाणी के निकट थे, उन दिनों उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी का मुखौटा बताकर बहुत बडा विवाद खडा कर दिया था। पर इससे ये संकेत तो साफ हो गया कि आडवाणी की टीम अटल बिहारी को दल का असली नेता नहीं मानती। अब इसमें गलती किसकी मानी जाए
इन सब लोगो की या आडवाणी की कैसी गलती क्या वो इसलिए गलत हैं कि वे अपने मन में प्रधानमंत्री बनने की लालसा पाले हुए हैं या फिर इसलिए कि उनके नेतृत्व में उनके ही सहयोगियों का विश्वास नहीं। 

दरअसल आडवाणी के व्यक्तित्व को लेकर भाजपा में ऊपर से नीचे तक काफी द्वंद्व है। मीडिया का सहारा लेकर और सोची समझी रणनीति के तहत रामरथयात्रा के दौरान उनकी जो आक्रामक छवि प्रस्तुत की गई थी उसने उन्हें कार्यकर्ताओं का हीरो बना दिया था। सबको लगता था कि अगर राम राज्य आएगा तो आडवाणी के नेतृत्व में ही आएगा। राम राज्य तो नहीं आया अलबत्ता एन. डी. ए. राज जरूर आया और इस राज में आडवाणी उप प्रधानमंत्री व गृहमंत्री थे। दोनों ही पद काफी ताकतवर थे पर वे ऎसा कुछ भी नहीं कर पाए जिससे उनके दूसरा लौह पुरूष होने का प्रमाण मिलता। इससे उनके चाहने वालों को काफी निराशा हुई। फिर रामजन्म भूमि से लेकर जिन्ना प्रकरण तक जिस तरह आडवाणी के विरोधाभासी बयान आते रहे, उससे उनके प्रति रहा बचा मोह भी भंग होता गया। आज हालत ये है कि भाजपा के पास कोई राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं है। संगठन में वो अनुशासन नहीं बचा जिसकी दुहाई नब्बे के दशक में दी जाती थी। मजबूरी में उनके घोर विरोधियों को भी आडवाणी को एन.डी.ए. की सम्भावित सरकार का नेता मानना पड रहा है। पर ये सब मानते हैं कि मौजूदा हालातों में आडवाणी का वो करिश्मा नहीं बचा जो उन्हें चुनाव की वैतरणी पार करा सके। इसलिए सबके मन मे बेचैनी है।

उधर अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने के लिए आडवाणी ने जिन्ना प्रकरण को जानबूझकर खडा किया। जिससे उन्हें सहयोगी दलों का समर्थन मिल सके। वैसे भी उनका वह बयान उनकी अपनी सोच का परिचायक था। दुनिया में बनी छवि के विपरीत आडवाणी धर्मान्ध व्यक्ति नहीं हैं। आडवाणी जानते हैं कि इस देश में धर्मान्ध राजनीति करने वाले शीर्ष तक नहीं पहुंचते। इसलिए वे जानबूझकर ऎसे विवादों को पनपने देते हैं, जिनसे उनकी रामजन्म भूमि आन्दोलन वाली छवि समाप्त हो जाए। अलबत्ता वे संघ को भी खुश रखना चाहते हैं ताकि उनका कार्यकर्ता उनसे जुडा रहे और चुनाव में काम आता रहे। आडवाणी ही क्यों, नरेन्द्र मोदी तक बदल चुके हैं। अमरीका वाले लाख गोधरा के मोदी को याद कर गाली देते रहें। मोदी अब खुद धर्म निरपेक्ष छवि बनाने में लगे हैं। पिछले दिनों गुजरात में विहिप के कार्यकर्ताओं पर उनके राज्यकाल में जो लाठियां चलीं, उससे संघ परिवार बहुत नाराज हुआ। पर मोदी ने भी यह एक सोची समझी रणनीति के तहत किया। 

जहां तक नेतृत्व का सवाल है, इसमें शक नहीं कि आडवाणी अपने साथियों का प्रेम और विश्वास जीतने में विफल रहे हैं। वरना क्या वजह है शारीरिक रूप से चलने-फिरने में असमर्थ हो चुके अटल बिहारी को उनके सहयोगी बेहिचक अपना नेता मानने को आज भी तैयार हैं। पर आडवाणी को वे मन से अपना नेता नहीं मानते। लोकतंत्र में किसी भी व्यक्ति के मन में प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा पैदा हो सकती है। फिर 70 वर्ष से राजनीति में सक्रिय आडवाणी की ये महत्वाकांक्षा गलत नहीं है। पर उन्हें आत्मविश्लेषण करना चाहिए कि क्या कारण है कि नए-नए लोगों के जुडने के बजाय एक-एक करके सब पुराने बडे नेता और उनके सहयोगी उनसे कन्नी काट चुके हैं। अब उनके पास ज्यादा वक्त नहीं है। इस बार प्रधानमंत्री नहीं बने तो फिर पांच साल बाद तो और भी देर हो जाएगी। इसलिए उनके हक में यही होगा कि वे लोगों को टूटने न दें बल्कि जो अलग हो गए हैं, उन्हें भी फिर से जोड लें। कल्याण सिंह का अलग होना यह बताता है कि चुनाव तक भाजपा और भी बडे झटके झेल सकती है। इसलिए आडवाणी को अब भी कोशिश करनी चाहिए कि उनके व्यक्तित्व में ऎसा निखार आए कि लोग उनसे बचें नहीं, टूटें नहीं बल्कि उनके साथ जुडकर दल का एजेण्डा आगे बढाएं। अगर वे ऎसा नहीं कर पाते हैं तो उनकी आगे की राह आसान नहीं होगी। फिर भाजपा का भी कोई ज्यादा कल्याण होने वाला नहीं है। 

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