Saturday, February 21, 2009

"कठघरे" में न्याय 
 

इ स देश का दुर्भाग्य कहना चाहिए कि जनप्रतिनिधि से लेकर नौकरशाह तक आपराधिक मामलों में फंसे हैं। वे नहीं चाहते कि अदालतें मामलों का निपटारा समय पर करें, क्योंकि इससे उनकी खुद की गर्दन फंस जाएगी। जितनी देरी होगी उतने में वे गवाह को तोडने, जांच प्रक्रिया को प्रभावित करने जैसे हथकण्डे अपनाकर खुद के बच निकलने का रास्ता निकाल लेते हैं। लेकिन कई सालोें से इस सवाल को उलझा कर रखने वाले अब थोडा दबाव महसूस करने लगे हैं। आम लोगों की आवाज अनसुनी करने का मतलब उन्हें समझ में आने लगा है, ऊपर से जनता के साथ विकास में भागीदार बन रहे विदेशी निवेशक और औद्योगिक घरानों का स्वर भी मिल गया है, ऎसे में व्यवस्थागत बदलाव की तरफ थोडा सोच बनती दिख रही है। 

के. टी. एस. तुलसी 
पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल
भारतीय संविधान को इतना पैना बनाया गया है कि उसमें बेगुनाह फंसने से बचाने और गुनहगार के किसी भी तरह से नहीं बच पाने के पूरे प्रावधान रखे गए हैं। भारतीय संविधान में सबको समय पर न्याय की अवधारणा के तहत ही मामले के निपटारे की मियाद सुनिश्चित की गई थी, परन्तु इतने अच्छे प्रावधान, सख्त कानून के बाद भी भारत में अपराधों की संख्या में इतना इजाफा हो गया कि समूची न्याय व्यवस्था को लेकर सवाल उठने लगे। देश में इस मसले पर खूब बहस चली। बुद्धिजीवी हों या सामान्य जन कई मंचों से यह सवाल उठे। जनाक्रोश बढता देख सरकारों ने संविधान में बदलाव करके कानून और कडा करने का संदेश देकर जनता को यह संदेश दिया कि उनकी चिंताओं से सरकार भी चिंतित है।

नेता डरते हैं, सुधार करने से 
ऎसा नहीं है कि देश को चलाने वालों को इसका उपाय पता नहीं है। उन्हें तकनीक मालूम है जिससे अपराधियों के मन में भय पैदा किया जा सके, लेकिन उस पर अमल इसलिए नहीं हो रहा क्योंकि इससे खुद राजनीतिज्ञ और नौकरशाहों के मन में डर भरा हुआ है। कई सालोें से इस सवाल को उलझा कर रखने वाले अब दबाव महसूस करने लगे हैं। आम लोगों की आवाज अनसुनी करने का मतलब उन्हें समझ में आने लगा है, ऊपर से जनता के साथ विकास में भागीदार बन रहे विदेशी निवेशक और औद्योगिक घरानों का स्वर भी मिल गया है, ऎसे में व्यवस्थागत बदलाव की तरफ थोडा सोच बनती दिख रही है। 

अपराधियों को लाभ
भारत में वर्गीकृत दण्ड का प्रावधान इसी मकसद से किया गया था कि अपराधियों के मन में कानून के प्रति डर बना रहे और वह अपराध करने से पहले सख्त सजा से घबराकर अपने कदम खींच ले। आजादी के बाद कुछ साल तक ऎसा हुआ, परन्तु समय के साथ न्यायिक जांच प्रक्रिया इतनी जटिल होती गई कि तीन से छह माह में निपटारा हो जाने वाले मामलों में पांच से दस साल लगने लगे। इसका दुष्परिणाम ये रहा कि पेचीदा जांच, लम्बी बहस और रोज कोर्ट से बुलावा के कारण गवाह तंग होने लगा या टूटने लगा। इसका फायदा अपराधियों को मिला।

पद्धति बदलें, समस्या हल
इस देश में कानून बदलने की बजाय यदि अदालतों की सौ साल पुरानी पद्धति को बदल दिया जाए तो बहुत सारी दिक्कत अपने आप हल हो जाएगी। कम कर्मचारियों वाले अदालत में मुकदमोें का भण्डार लगा है। किसी को यह देखने की फुर्सत नहीं है कि अदालतें किस आभाव में काम कर रही हैं। उनके पास जरूरी साजोसमान है अथवा नहीं। ऎसे में समयबद्ध मामले के निपटारे की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आज अदालतों का आधुनिकीकरण सबसे बडी जरूरत है। पुरानी परम्परा को त्यागकर हमें अदालतों को ऎसे आधुनिक साजोसमान उपलब्ध कराने होंगे जिससे धीमी गति को रफ्तार दी जा सके। 

तकनीक का करें इस्तेमाल
सभी अदालतों के कामकाज को बेहतर बनाने के लिए नई तकनीक के इस्तेमाल की जरूरत है। अदालतों में आडियो विजुअल रिर्काडिंग सिस्टम लगाया जाना चाहिए। जिससे गवाही, बहस सहित सभी जरूरी बातों को लिखने में जाया होने वाले समय को बचाया जा सके। सभी अदालतों में कम्प्यूटर, शार्ट हैण्ड मशीन जैसे बेहतर उपकरण होने से बहुत समय बचाया जा सकता है। लेकिन इस तरफ कभी ध्यान नहीं दिया गया। इस देश का दुर्भाग्य कहना चाहिए कि जनप्रतिनिधि से लेकर नौकरशाह तक ऎसे मामलों में फंसे हुए हैं कि वे खुद नहीं चाहते कि अदालतें मामलों का निपटारा समय पर करें, क्योंकि उससे उनकी खुद की गर्दन फंस जाएगी। जितनी देरी होगी उतने में गवाह को तोडने, जांच प्रक्रिया को प्रभावित करने जैसे हथकण्डे अपनाकर खुद के बच निकलने का रास्ता निकाल लेते हैं। ऎसे में कानून पर अंगुली उठानेे की बजाय हमें वास्तविकता समझनी होगी। सरकारों की यह वास्तविकता अब उजागर होने लगी है।

वास्तविकता समझनी होगी
पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि सरकार जागी है। इस हलचल का कारण विदेशी निवेशकों, औद्योगिक घरानों के दबाव को माना जा रहा है। परन्तु अभी सरकार पर उस तरीके का दबाव नहीं पड रहा कि वह जल्दी हरकत में आए। हालांकि भारतीय न्याय प्रणाली को पटरी में लाने में वक्त लगेगा, लेकिन जिसमें सुधार की सम्भावना नहीं दिख रही थी, उसमें यह पहल उम्मीद जगाती है। 
-जैसा उन्होंने राकेश शुक्ला को बताया

जरूरत है भ्रष्टाचार से लडने की 
1946 से वकालत के साथ ही राजनीति से भी जुड गया था। स्वतंत्रता के करीब तीन साल बाद देश में गणतंत्र की स्थापना के बाद पहला समारोह नागौर के मानासर चौराहे के पास हुआ। तब हम लोग इस समारोह में उत्साह से शामिल हुए। हर जगह गणतंत्र की बदौलत नागरिकों को हासिल हुए अधिकारों की गंूज थी। सभी को गर्व था कि हमारा संविधान बन गया है, जो हमारे अधिकारों की रक्षा करेगा। करीब सात साल बाद तब और खुशी हुई जब 2 अक्टूबर 1959 को प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नागौर से ही पंचायतीराज की नींव रखी। इसका नतीजा था कि 1959 में पंचायती राज संस्थाओं के हुए चुनाव में मुझे मूण्डवा से निर्विरोध प्रधान चुना गया। इसके 15-20 दिन बाद मुझे नागौर का प्रथम जिला प्रमुख बनने का गौरव हासिल हुआ। तब हमारी सोच थी कि गांवों में विकास के साथ ही ग्रामीणों को शिक्षित कर राष्ट्र के विकास में भागीदार बनाया जाए। तरक्की तो आज भी हो रही है, लेकिन इसमें स्वार्थ और भ्रष्टाचार ज्यादा है। मुझे याद है सभी सदस्यों ने तय किया कि जिला परिषद का भवन बनवाया जाए। इसके लिए हमने तत्कालीन प्रशासन से मशविरा किया तो निर्णय हुआ कि पंचायतों को सीमित फण्ड मिलता है, इसलिए आपसी सहयोग से जिला परिषद का भवन बनवाया जाए। हमने किया भी यही। उस समय के राजनेता अच्छे थे और अच्छे लोगों को राजनीति में लाने की पहल करते थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद नागौर आए मोहनलाल सुखाडिया ने कहा था कि अच्छे लोगों को हमेशा सहयोग करो, वे आपके काम को याद रखेंगे। आज ऎसा नहीं है। लोगों की नजर में स्वतंत्रता दिवस व गणतंत्र दिवस औपचारिकता बनकर रह गए हैं। इसी कारण मैंने 1975 में राजनीति को अलविदा कर दिया। पंडित जवाहरलाल नेहरू का सपना था कि पंचायत राज व्यवस्था के जरिए गांव और उनमें रहने वाले पिछडे लोगों का विकास हो और गणतंत्र मजबूत हो, लेकिन यह सपना पूर्ण रूप से साकार नहीं हो पाया। 70 के दशक के बाद भ्रष्टाचार की फैलती जडों ने इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को खोखला करना शुरू कर दिया। यह भ्रष्टाचार बाद के सालों में बढता ही गया। आज युवाओं को इस भ्रष्टाचार से लडने की जरूरत है। बदमाशी करने वाले लोगों को दण्डित किया जाए और गरीब का सम्मान हो, तभी पूरा होगा गणतंत्र का मकसद। 
-जैसा लिखमाराम चौधरी ने 
इंशाद खान को बताया

माया की "माया"
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति का मामला पांच साल से लम्बित है। सीबीआई ने वष्ाü 2003 में यह मामला दर्ज किया था। अब सीबीआई ने कोर्ट को बताया है कि अकबरपुर से लोकसभा चुनाव लडते समय उन्होंने एक करोड रूपए की सम्पत्ति बताई थी जो वर्ष 2007 में बढ कर पचास करोड हो गई है। मायावती के मुताबिक कार्यकर्ताओं से जन्मदिन पर मिले चन्दे की राशि से उनका धन बढा है। 

मुलायम भी कम नहीं
उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह पर भी आय से अधिक सम्पत्ति का मामला लम्बित है। इस मामले में सीबीआई इसी महीने अपने ढुलमुल रवैये को लेकर उ“ातम न्यायालय से फटकार खा चुकी है। मार्च-07 में एक जनहित याचिका पर न्यायालय के आदेश से मुलायम, उनके पुत्रों व पुत्रवधू के खिलाफ जांच शुरू हुई थी। सीबीआई ने दो सप्ताह पहले हुई सुनवाई के दौरान अदालत से रिपोर्ट पेश करने के लिए फिर समय मांग लिया। 

जो अटके सो लटके
देश की अदालतों में ऎसे मामलों की लम्बी फेहरिस्त है जो एक बार अटके तो दस, पन्द्रह, बीस साल से लटके हुए हंै। हर्षद मेहता काण्ड, बाबरी मस्जिद काण्ड, 84 के दंगों का मामला और ऎसे ही न जाने कितने बडे और चर्चित मामले तो आम लोगों को याद तक हो चुके हैं। चन्दमिसालें यहां फिर याद दिला देते हैं...

84 के दंगे
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 1984 में हत्या के बाद देशभर में फैले सिख विरोधी दंगों के पीडितों को अब तक न्याय नहीं मिल पाया है। अनेक आयोग बने लेकिन प्रमुख कर्ताकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो पाई। पूर्व मंत्री जगदीश टाइटलर के खिलाफ एक याचिका अब भी दिल्ली की अदालत में चल रही है। सीबीआई ने इसी महीने अदालत में आवेदन दायर कर अंतिम स्टेटस रिपोर्ट दायर करने के लिए तीस दिन का समय मांगा है। उडीसा ने हाल ही में उस समय के पीडितों के लिए मुआवजा राशि जारी की है।

बाबरी ढांचा विध्वंस
वर्ष 1992 में अयोध्या में बाबरी ढांचे को तोडने को लेकर राम जन्मभूमि पुलिस चौकी पर दर्ज मामले की सुनवाई अब तक गति नहीं पकड पाई है। राज्य पुलिस से मामला सीबीआई के पास पहुंचा और सीबीआई ने वष्ाü1993 में आरोप पत्र दायर किया लेकिन आरोप तय हो पाए बारह साल बाद। उ“ातम न्यायालय ने वर्ष 2005 में यह मामला रायबरेली हस्तांतरित किया था। चौकी पर एफआईआर दर्ज करने वाले एएसआई हनुमान प्रसाद और तब वहां तैनात सीआरपीएफ के डिप्टी कमाण्डेन्ट आर. के. स्वामी के ही बयान हो पाए हैं।

भागलपुर दंगे
बिहार के भागलपुर और आस-पास के इलाके में 1989 में दंगे भडक उठे थे। आधिकारिक आंकडों के अनुसार दंगों में कुल 1070 लोग मारे गए। उ“ा न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश रामचन्द्र प्रसाद सिन्हा और शमसुल हसन के जांच आयोग ने पुलिस एवं प्रशासन के 14 अधिकारियों को दोषी बताया लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। दंगों को लेकर 142 एफआईआर दर्ज हुई जिनमें से कुछ में दो साल पहले तक सुनवाई चलती रही। कुछ अभियुक्तों को सजा हो पाई है। केन्द्र ने जून 2008 में मुआवजा स्वीकृत किया। 

चारा घोटाला
बिहार में पन्द्रह साल पहले यह घोटाला उजागर हुआ जिसमें चारे के नाम पर 950 करोड रूपए की हेरफेर की गई। तत्कालीन मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव पर भी आरोप लगे। उ“ातम न्यायालय के आदेश पर सीबीआई ने जांच के बाद यादव सहित अनेक राजनेताओं को मामले में लिप्त बताया। बाद में लालू यादव को इस्तीफा देना पडा। इस घोटाले को लेकर दर्जनों एफआईआर दर्ज हुए जिनमें से कुछ की सुनवाई पूरी होकर कुछ अभियुक्तों को सजा हो गई है लेकिन अनेक मामले अब भी अदालतों में लम्बित हैं।

हर्षद मेहता घोटाला
वर्ष 1991-92 में शेयर मार्केट में हुए इस बडे घोटाले ने हजारों लोगों को बर्बाद कर दिया। शेयर मार्केट का यह पहला बडा घोटाला था। दस हजार करोड रूपए के इस सिक्योरिटी घोटाले में मेहता के साथ अनेक बैंकों के अधिकारी शामिल थे। उस समय लिस्टेड कम्पनियों में से एक हजार से ऊपर का तो नामोनिशान तक नहीं बचा है। मुम्बई में वर्ष 1992 में इस मामले को लेकर स्थापित हुई विशेष अदालत 16 साल गुजरने के बाद भी सुनवाई कर रही है। हालांकि हर्षद मेहता की मौत हो चुकी है। 

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